बचपन और बालसाहित्य के सरोकार

बचपन और बालसाहित्य

 के सरोकार

“बात उन दिनों की है जब सम्राट सिकंदर भारत छोड़कर जा रहा था. भारत में विजित राज्यों की देखभाल के लिए उसने अपने प्रतिनिधि नियुक्त किए थे. उनमें एक राजा बहुत ही उदंड एवं आततायी था. प्रजा के सुख-दुख से उसे कोई मतलब ही न था. उस समय एक साधु आगे आया, नाम था बिदपई. उसने अपनी पत्नी से कहा कि मैं राजा को डपटने, समझाने जा रहा हूं. पत्नी भय से रोने-झींकने लगी तो बिदपई ने उसको समझाया और प्रस्थान कर गया. जिस समय वह सम्राट की नगरी में पहुंचा, अंधेरा हो चुका था. राजभवन की छत पर बैठा सम्राट खुले आसमान में तारे देख रहा था. विस्तीर्ण अनंताकाश में टिमटिमाते अनगिनत तारों को देख राजा को अचानक अपने अस्तित्व की लघुता का बोध होने लगा. उसका लगा कि अनंताकाश के समक्ष वह कितना तुच्छ है. ये तारे हजारों-लाखों वर्षों से इसी प्रकार टिमटिमाते आ रहे हैं. इन्हें देखते हुए उसका जीवन कितना लघु है. देखते ही देखते सम्राट का नगण्यताबोध अवसाद में ढल गया. उसे अपना जीवन तुच्छ लगने लगा.

उसी क्षण सम्राट ने एक भव्य आकृति को अपने समक्ष पाया. वह हरे वस्त्रों पहने थी, जिनपर अनेक कहानियां छपी हुई थीं. सम्राट की मनःस्थिति को पहचानते हुए भव्य आकृति बोली—

‘चूंकि तुमने पहली बार अपने वैभव और महत्वाकांक्षाओं से परे हटकर जीवन के सत्य के बारे में सोचा है, इसलिए मैं तुम्हें एक वरदान देना चाह रहा हूं. यदि तुम कल प्रातःकाल मेरी बताई गई दिशा में प्रस्थान करोगे तो वहां तुम्हें अनमोल खजाना प्राप्त होगा.’

राजा वैभव से उकता चुका था. साधु की बात मान अगले दिन उसने राज्य छोड़ दिया और साधु द्वारा बताई दिशा में प्रस्थान कर गया. चलते-चलते अचानक उसकी निगाह एक फटेहाल व्यक्ति पर पड़ी. राजा उसके पास पहुंचा. पूछने पर थकान से चूर राजा ने बताया—‘मित्र कल रात मुझसे कहा गया था कि यहां पहुंचने पर मुझे खजाना मिलेगा, मैं उसी की तलाश में हूं.’

‘क्या तुम सम्राट देवशलीन हो?’

‘हां, मैं सम्राट देवशलीन ही हूं.’

‘तब तो उस गुफा में खजाना तुम्हारी प्रतीक्षा में है. चलकर देखो.’ मंत्रमुग्ध-सा सम्राट उसके पीछे चल दिया. गुफा के भीतर पहुंचते ही सम्राट की आंखें चौंधियां गईं. वहां सोने और हीरे-जवाहरात का ढेर लगा था. सम्राट उसको फटी-फटी आंखों से मग्न मन कुछ देर तो देखता रहा, थोड़ी देर बाद बोला—‘अरे, यह सब तो मेरे पास पहले ही बहुत सारा है. और मुझे भला क्यों चाहिए?’

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